जिन्दगीनामा
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उन्मुक्तता
के
लिए
एक
उज्र
ही
तलाशते
रहे
...
चिंता
कभी
बीते
हुए
कल
की,
आशा
कभी
आने
वाले
पल
की,
इन्हीं
पिंजरे
के
सींकचो
में
उलझ
कर
,
ख्वाहिशों
के
पर
टूट
कर
बिखरते
रहे
....
सहल
नही
है
ये
हयात-ए-सफर ,
कभी
रिश्तों
के
दायरों
में
बंधकर,
कभी
समाज
के
बोझ
से
दबकर,
खुद
के
ख्वाबों
को
खुद
ही
रौंदने
पड़े.....
गुम
गये
इतने
दुनिया
के
उलझनों
में,
खुद
को
भूल
गए
गाफिल
अंजुमन
में
,
ऐसी
रही
दास्ता-ए-जिन्दगी कि,
सपने
सामने
ही
आबसार
से
बहते
रहे......
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समझ
ही
नही
आ रहा है हयात-ए-मुख्तसर....
लियाकत
नही
कि
समझ
सके
दुनिया
के
दस्तूर
पर
शिद्दत
से
लगे
है
माकूल
बनाने
में
...
ऐ
दिले
नादां
तू
यूं
ही
चला
चल
राह
पर
झंझावतो
से
घबरा
कर
यूं
पथ
से
रुखसत
न कर
निराशा
के
अब्र
को
भेद
तुझे
चलते
जाना
है
,
ऐ
मुसाफिर
तुझे
तो
कर्म
पथ
पर
बढ़ते
जाना
है....
माना
की
कोई
उज्र
नही,कोई तमन्ना नही।
इक
नयी
राह
बनाते
हुए
चलते
जाना
है
......
बड़ी
मुश्किल
होती
है
जब
मंजिल
रहगुजर
बनती
है
पर
उम्मीद-ए-चिराग जलाते हुये जाना है.....
यहां
न कोई है अपना, न कोई साथ देता है
खुद
ही
खुद
का
वसीला
बनते
जाना
है.....
दरख्तों
के
साये
सी
है
ये
जिन्दगी
के
किस्से
बस
इक
लौ
की
तरह
जलते
जाना
है.....
( शिक्षिका व लेखक )
डिसक्लेमर : ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं