Unique short Poem on life : धुंआ

Unique short Poem on life : धुंआ

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    ~~~मैं उठता धुआं ~~~


मैं उठता हुआ धुआं....
मेरी अपनी महक और...है अपनी भाषा।
अक्सर दिख जाता हूँ कहीं कहीं, 
कोई अवसर हो या हो कोई भी ज़मी।
मैं किसी की मोहब्बत का, 
कभी किसी की नफ़रत का,
किसी की बेचैनी का...तो ,
 कहीं किसी की शहादत का ।
दिखता हूँ...यूँ अक्सर मैं.....उठता हुआ धूँआ ।

किसी के घर की भूख का, 
तो किसी धोखे से तड़पती रूह का ।
किसी की समाज में शोहरत का ,
तो कहीं पर बग़ावत का ।
मैं उठता हुआ धुआं......

कितना भी छिपा लो, जला दो, मिटा दो ,
पर मैं रह ही जाता हूँ....अंत में....
कहीं किसी के संवाद में ,
तो किसी के मन के अवसाद में। 
देख लो मुझे अपने हर मनोभाव में  
परत -दर- परत बाहर आ ही जाता हूँ, 
मैं........उठता हुआ धुआं.....।

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